Dharti Ka Veer Yodha Prithviraj Chauhan
इधर पृथ्वीराज शाशिवृता को ले दिल्ली आ पहुंचे और वीरचन्द्र ने पृथ्वीराज से हार का बदला भानराय से लेने की ठानी. उसने भानराय के किले को चारों ओर से घेर लिया और कुछ सेना और भेजने के लिए जयचंद को पत्र लिखा. भानराय ने जब अपने को घिरा पाया तो पृथ्वीराज को पत्र लिखा की आपके कारण ही मेरे उपर इतनी बड़ी विपदा आई है इसलिए इस समय आप मेरी रक्षा कीजिये. इसी समय वीरचंद का दूत पत्र लेकर जयचंद के पास पहुंचा और पत्र के अतिरिक्त उसने जबानी ही सारा हाल जयचंद्र को बता दिया, जयचंद्र पहले से ही दिल्ली का राज सिंहासन न मिलने के कारण पृथ्वीराज से क्रोधित था अब तो वो और भी क्रोधित हो गया, उसने तुरंत ही वीरचंद को अपनी सहायता पहुंचाई.
जयचंद ने तुरंत ही अपने सभी मंत्रियों को बुलाकर ये परामर्श करने लगा की अपने सभी अधीन राजाओं और सामंतों को सभी सेना समेत कन्नोज बुला लिए जाए वे राजसूय यज्ञ करेंगे.
दुसरे ही दिन सवरे से ही कन्नोज में सेना एकत्र होने लगी. जयचंद्र के अधीन राजाओं की सेना भी उनमे आकर सम्मिलित होने लगी. उनकी सेना ध्वजा लिए आगे आगे चलने लगी और उस ध्वजा के पीछे पीछे वीर योद्धा चलने लगे. इसी समय नरवर के राजा का छोटा भाई अमरसिंह और दीर्घकाय महाबलशाली पंगुराय भी अपनी सेना लेकर जयचंद के सेना में सम्मिलित हो गया. इस तरह जयचंद की विशाल सेना भानराय और पृथ्वीराज से बदला लेने के लिए चल पड़ी. जब भानराय द्वारा लिखा पत्र पृथ्वीराज को मिला तो उन्होंने भानराय की मदद करना अपना कर्तव्य समझा और तुरंत ही पृथ्वीराज ने समरसिंह को पत्र लिख कर कहा की इस समय आपको हमारी मदद अवश्य ही करनी चाहिए, समर सिंह ने सहर्ष ही पृथ्वीराज की प्राथना स्वीकार कर ली. समर सिंह को पहले से ही पता था की यवनी सेना पृथ्वीराज पर फिर से आक्रमण करना चाहती है इसलिए समरसिंह ने पृथ्वीराज से कहा की आप दिल्ली न छोड़े,आप दिल्ली की सुरक्षा के लिए वहीँ रहे और आप अपने कुछ सामंत हमारे साथ कर दे भानराय की सहायता हम कर लेंगे. पृथ्वीराज ने समरसिंह की बात मान ली. उन्होंने अपने सामंत चामुंडराय और जैतसी को समरसिंह के पास भेज दिया और स्वयं दिल्ली में रुक गए.
समरसिंह ने अपने भाई अमरसिंह को भानराय की सहायता के लिए देवगिरी भेज दिया, इधर वीरचंद भानराय का किला को घेराबंदी किये बैठा था पर अबतक कुछ कर नहीं पाया था. चामुंडराय ने रात्रि के समय जाकर वहां आक्रमण कर दिया, एक तो वर्षा की अंधकारमयी रात्रि के कारण वीरचन्द्र की सेना पहले से ही विचलित हो रही रही थी, जब जल की वर्षा के साथ तीरों की वर्षा भी होने लगी तो वीरचन्द्र की सेना और भी घबरा गयी. इतना सब कुछ होने पर भी उसकी सेना ने रणक्षेत्र नहीं छोड़ा, दोनों दलों में घोर युद्ध होने लगा. इसी बीच समरसिंह की सेना लिए उसका भाई अमर सिंह युद्ध मैदान में आ गए और चामुंडराय की मदद करने लगे, युद्ध और भी भीषण होने लगा. जयचंद को हर समय का समाचार लगातार मिल रहा था, वीरचंद की सेना की हार से पहले ही वो रणक्षेत्र में पहुँच कर किला में अधिकार करना चाहता था, इसलिए वो और भी वेग से आगे बढ़ा. जब वह वहां पहुँच कर देखा तो पता चला की किला बहुत लम्बा चौड़ा और खाई से घिरा हुआ है तब उसे लाचार होकर वहीँ पड़ाव डालना पड़ा. जयचंद बहुत ही कूटनीतिज्ञ था, उसने राजनीतिज्ञ चालो द्वारा वहां के रक्षको को घूस देकर अपने साथ मिलाना चाहा पर ऐसा न हो पाया. तब उसने दुसरे ढंग की चाले चला. उसने किला में सुरंग लगाने की आज्ञा दी,परन्तु किले की खाई इतनी गहरी थी की उसकी ये चेष्टा भी निष्फल हुई, अब उसके तीनो राजनीतिज्ञ शस्त्रों साम,दाम,दंड, निष्फल हो गए थे अब आखिरी शास्त्र भेद की बरी थी, उसने एक दूत को राजा भानराय के पास भेजकर ये सन्देश भेजवा दिया की आप मेरे साथ मिल जाईये ताकि हम मिलकर पृथ्वीराज से आपके अपमान का बदला ले सके, भान राय ने अपने मंत्री से जब इसकी सलाह ली तो उसके मंत्री ने कहा की हमें जयचंद के इस चाल में नहीं आना चाहिए पृथ्वीराज से बैर करना उचित नहीं होगा अपने मंत्री की दूर दर्शिता को देखकर वो बहुत खुश हुआ और भानराय ने जयचंद के साथ मिलने से इनकार कर दिया. जब जयचंद लाचार होकर किले पर अपना अधिकार नहीं जमा पाया तब उसने देवगिरी में लूटपात मचाना शुरू कर दिया. और अनेक स्थानों में अपना शाषण फैलाना भी शुरू कर दिया, परन्तु चामुंडराय और अमरसिंह के सेना ने उसके इस कार्य में उसे तंग करने लगी. अपने राज्य से इतनी दूर आकर जयचंद वास्तव में मुसीबत में फंस गया था क्योंकि वो देवगिरी के इलाकों में अपना अधिकार तो कर लेता पर जयादा समय तक उसका उचित प्रबंध न कर पाता, इसप्रकार से चामुंड राय और अमरसिंह के द्वारा उसके कितने ही सेना मारे गए. जयचंद्र के सामंतों ने उसे ये बात समझाई की अगर आप देवगिरी में विजय प्राप्त कर भी लेते है तो आप अपना प्रभुत्व अपने राज्य से दूर होने के कारण यहाँ कायम नहीं रख पाएंगे, ये युद्ध शाशिविता के लिए थी, पृथ्वीराज तो उसे ले गए अब व्यर्थ ही नरसंहार करने की कोई आवश्यकता नहीं है. मंत्रियों की ये बात जयचंद के मन में भा गयी, उसने उस समय अपने सभी सेना को कन्नोज वापस चलने की आज्ञा दे दी. इस तरह से देवगिरी का युद्ध समाप्त हो गया.
Legend of Prithviraj Chauhan