Story Of Rajsuya Yagya
राजसूये यज्ञ
अब हमलोग कन्नोज की ओर झुकते है. जब जयचंद की उम्र सोलह वर्ष की थी तब उसके यहाँ चंद्रमा के सामान दीपवती कुमारी संयोगिता ने जन्म लिया. यह कन्या बहुत ही रूपवती थी. जब संयोगिता की उम्र बारह वर्ष की हुई तब जयचन्द राजसूये यज्ञ करने का विचार कर रहा था. बारह वर्ष की उम्र में ही सब कोई संयोगिता की सुन्दरता में मुग्ध रहते थे. जयचंद भी उससे बहुत प्यार करता था. जयचंद के लाड प्यार इतना बढ़ा चढ़ा था की संयोगिता दिनों दिन हठी बनाये जा रहा था. इस हठ का परिणाम क्या होगा इसका अंदाज़ा किसी को न था.
बालुकराय जयचंद के भाई थे, जयचंद ने बालुकराय से परामर्श कर राजसूय यज्ञ करना चाहा. राजसूए यज्ञ में छोटे से बड़े सभी राजाओं को निमंत्रण देना होता है, इसलिए जयचंद ने विभिन्न प्रान्तों के राजाओं को एकत्र करने के लिए निमंत्रण पत्र भेजने का विचार किया. कन्नोज राजमहल में अतिथि सत्कार और दानपुण्य के लिए सभी सामग्रियां जुटायी जाने लगी.
उस समय जयचंद के मंत्री सुमंत ने बहुत तरह से समझाने की कोशिश की किये करना उचित नहीं है, आजकल यज्ञ का सुचारू रूप से संपन्न होना संभव नहीं है व्यर्थ ही बैठे बिठाये विरोध बढ़ने की सम्भावना है. परन्तु जयचंद ने अपनी मंत्री की एक बात नहीं मानी बल्कि उसने अपने मंत्री को आदेश दिया की तुम पृथ्वीराज को ये पत्र लिखो की दिल्ली राज्य पर हमारा और तुम्हारा दोनों का अधिकार है इसलिए दिल्ली का आधा क्षेत्र हमें दे दो और यज्ञ में उपस्थित होकर यज्ञ का काम पूरा करो. यह बात सहज में में नहीं होने वाली थी . बहुत कुछ समझाने पर भी जब जयचंद नहीं माना तब जयचंद के मंत्री सुमंत खुद ही पृथ्वीराज से मिलने के लिए दिल्ली चले गए. सुमंत ने पृथ्वीराज को समझाया और यह निश्चय हुआ की सभी सामंत एकत्र होकर इस विषय पर विचार करेंगे. इधर जब ये सब बातें हो रही थी तब जयचंद का भेजा हुआ एक अन्य दूत राजसूये यज्ञ का निमंत्रण लेकर आ पहुंचा, निमंत्रण पत्र में लिखा था की तुरंत यहाँ आकर जयचंद की आज्ञा अनुसार राजसूए यज्ञ का जो भी कार्य सौंपा जाए उसका पालन कीजिये, पृथ्वीराज ने दूत को बहुत तरह से समझाया की इस समय जयचंद का राजसूये यज्ञ करना किसी भी तरह से उचित नहीं है इसलिए इस काम में वे हाथ न डाले,अतः तुमलोग जाकर अपने राजा को समझाओ. दूत और सुमंत वहां से लौट आये. सुमंत ने लौट कर फिर से समझाना चाहा परन्तु कौन सुनता है, इस समय तो जयचंद के माथे होनहार स्वर थी. उसे जब मालूम हुआ की पृथ्वीराज न ही दिल्ली का आधा राज्य देना चाहता है न ही उसका अधीनता स्वीकार कर राजसूए यज्ञ में शामिल होना चाहता है तो उसके क्रोध का सीमा न रही. उसने युद्ध विद्या विरासद बालुकराय और यवनी सेना प्रमुख खुरासान खां को बुलाकर राज्य की सुरक्षा का भार सौंपा और खुद ये विचार करने लगा की पृथ्वीराज को परास्तकर जबरदस्ती कैसे यहाँ लाया जाए, पर ये काम सोचने जितना सहज नहीं था, उपर से यज्ञ का समय निकल जाने का भी डर था. इसलिए उसने आज्ञा दी की पृथ्वीराज की सोने की प्रतिमा बनवाकर द्वार पर स्थापित कर दी जाए और यज्ञ का कार्य शुरू किया जाए, यही राय स्थिर हुआ और यज्ञ की तयारियां होने लगी. यह समाचार भी पृथ्वीराज के पास पहुंचा. पृथ्वीराज की प्रतिमा द्वारपाल के स्थान में रखे जाने का समाचार सुनकर पृथ्वीराज के सभी सामंत क्रोध से अधीर हो उठे, उन्होंने अपने महाराज का अपमान होते देख क्रोध पुर्वक पृथ्वीराज से युद्ध की अनुमति मांगी, उन सबने एक स्वर से कहा की हमें कन्नोज में इसी वक़्त आक्रमण कर यज्ञ को विध्वंस कर देना चाहिए, परन्तु सेनापति कैमाश ने कहा की की अभी कन्नोज से युद्ध करने का सही अवसर नहीं है जयचंद का बल बहुत ही बढ़ा चढ़ा है और इसके साथ ही कन्नोज में छोटे बड़े नृपति भी उपस्थित है, इसलिए हमें खोखंदपुर में हमला कर जयचंद के भाई बालुकराय को मार डालना चाहिए उसके मौत से जयचंद को भरी सदमा लगेगा और यज्ञ स्वयं ही विध्वंस हो जायेगा, पृथ्वीराज ने कैमाश की बात मान लिए, और बालुकराय को मारने के लिए चल दिए. जैसे ही पृथ्वीराज की सेना ने कन्नोज में कदम रखा वैसे ही खोखंदपुर में चरों ओर हाहाकार मच गया, सारे गांव को उजाड़ा जाने लगा, जमींदार पकडे जाने लगे, चौहान सेना के इस उपद्रव से परेशान होकर प्रजा ने बालुकराय से फ़रियाद की.
बलुकराय बहुत वीर था, उसने ये समाचार सुनकर पृथ्वीराज को राज्य में उपस्थित होने से पहले ही रोकना चाहा. युद्ध की तयारियां होने लगी . बलुकराय की सेना ने चौहान सेना को चारों ओर से घेर लिया, बहुत ही भयानक युद्ध होने लगा, बलुकराय इस समय अपने हाथी में बैठकर युद्ध कर रहा था, उसका हाथी ने चौहान सेना को रौंदने लगा था ये देखकर चौहान सेना थोड़ी विचलित हुई पर पृथ्वीराज चौहान ने उसके हाथी पर एकाएक ऐसा वार किया की उसका हाथी कराहकर जमीन में गिर गया, हाथी के गिरते ही चौहान सेना बलवती हो उठी और दुगुने जोश से लड़ने लगी, बालुकराय हाथी के गिरने पर स्वयं भी जमीन पर गिर पड़ा, लड़ते लड़ते उसका सामना कान्हा से हो गया, कान्हा ने बालुकराय पर ऐसा वार किया की उसका सर धड से अलग हो दूर जा गिरी, बालुक राय के मरते ही सेना विचलित हो उठी और रणक्षेत्र से भाद खड़ी हुई. इस युद्ध में बालुकराय के पांच हज़ार और पृथ्वीराज के तेरह सौ सिपाही मारे गए.
संग्राम में शत्रु सेना को परास्त का पृथ्वीराज खोखंदपुर को लूटने के लिए अग्रसर हुए.और उसे लूटकर दिल्ली लौट आये. इस प्रकार पृथ्वीराज ने अपने अपमान का बदला ले राजसूये यज्ञ को विध्वंस किया.
राजसूये यज्ञ