Story Of Prithviraj Chauhan
दिल्ली प्राप्ति
दिल्ली में शाषण तोमर वंश के राजा महाराज अनागपल के हाथों पर था, दिल्ली में प्रथम अनागपल ने तोमर वंश की स्थापना सन 733 में की और उस समय से लेकर लगभग बीस राजाओं ने दिल्ली पर शाषण किया. पृथ्वीराज के नाना दिल्ली में अंतिम तोमर वंश के शाषक थे. राजा अनंगपाल के समय की कुछ खास घटना की जानकारी नहीं मिलती है, उनके राज्य की स्थापना की भविष्यवाणी पहले ही की जा चुकी थी, आज जिस जगह पर दिल्ली बसी हुई है पहले यहाँ से दो मील दूर में दिल्ली बसी हुई थी जो की सबसे पहले महाराज युधिस्ठिर ने दिल्ली बासयी थी और समय समय इसका स्थान हर राजाओं द्वारा बदलता चला गया,चंदरबरदाई ने दिल्ली के बारे में लिखा है की जब प्रथम अनंगपाल ने दिल्ली बसाने लगे थे तब उनके कुल के पुरोहितों ने एक खूब लम्बी कील जमीन में गाड़ दी और महाराज से कहा की जबतक ये कील इस जमीन में गडी रहेगी तबतक दिल्ली में तोमर वंश का शासन रहेगा क्योंकि ये कील शेषनाग के माथे से जा लगी है, महाराज अनंगपाल को इस बात पर यकीन नहीं हुआ और उन्होंने वो कील निकलवा कर देखना चाहा जब वो कील निकला गया तब उस कील में सही में खून लगा था, अनंगपाल को इस बात पर बहुत दुःख हुआ की वो बहुत बड़ी बेवकूफी कर गए, फिर उन्होंने दुबारा पुरोहिंतों को बुला कर वो कील जमीन में गढ़वानी चाही पर ऐसा नहीं हो पाया, पुरोहिंतों ने काहा की महाराज मैंने आपका राज्य अचल करना चाहा था पर भगवान् की ही इच्छा नहीं थी अब तोमर वंस के बाद चौहान वंश और फिर दिल्ली में मुसलमानों का शाषन हो जायेगा.अब हम पृथ्वीराज के जीवन चरित्र की ओर झुकते है.
पहले ही बता चुके है की दिल्ली के शाषक महाराज अनंगपाल की दो पुत्री थी, उन्होंने अपनी कनिष्ठ कन्या कमलावती का विवाह अजमेर के महाराज सोमेश्वर से की थी. परन्तु कुछ इतिहासकारों का मत है की पृथ्वीराज के दादा बीसलदेव ने दिल्ली में आक्रमण कर अनंगपाल को हराया था और इसलिए अनागपल ने दिल्ली और अजमेर के बीच के रिश्तों को मजबूत करने के लिए अपनी कनिष्ट पुत्री कमलावती का विवाह सोमेश्वर राज चौहान से करा दिया था. पृथ्वीराज बचपन से ही कभी अजमेर में रहते थे और कभी दिल्ली में, महाराज अनंगपाल पृथ्वीराज के गुणों पर मोहित रहते थे, उनका कोई पुत्र नहीं था इसलिए उन्हें अपने राज्य के लिए एक योग्य राजा की जरुरत थी, उन्होंने मन ही मन पृथ्वीराज चौहान को ही दिल्ली का महाराज मान लिया था, क्योंकि उन्हें मालूम था की ये भविष्य में एक होनहार मनुष्य होगा. और इसलिए जब वो विर्धावास्था को प्राप्त किये तब उन्होंने बदरिकाश्रम जाकर तपस्या करने के विचार से और दिल्ली का भार उचित हाथों में शौंप कर निश्चिंत होना चाहते थे, इसलिए उन्होंने एक दूत अजमेर भेजकर पृथ्वीराज चौहान को दिल्ली का सम्राट बनाने का नेवता भेजा, इसे सुनकर महाराज सोमेश्वर और पृथ्वीराज चौहान बहुत ही खुश हुए परन्तु जयचंद्र जो की अनागपल का बड़ा नाती था उसका दिल्ली में पहले अधिकार था, इस कारण से दो राज्यों के बीच झगडा हो जाने का बहुत बड़ा खतरा भी था, इसलिए इस विषय पर विशेष विचार की आवश्यकता पड़ी. पृथ्वीराज ने अपने सभी सामंतों को एकत्र कर महाराज अनागपल का पत्र को पढ़ा गया, और खुद पृथ्वीराज चौहान और सभी सामंतों ने अपना यही मत दिया की महाराज अनागपल के इस मत को ठुकराना नहीं चाहिए और इसे अपना कर्त्तव्य समझ कर पृथ्वीराज ने दिल्ली का सिंहासन को स्वीकार कर लिया, एक ओर महाराज अनागपल जहाँ बहुत खुश हुए वहीँ दूसरी ओर जयचंद्र द्वेष की भावना में जलने लगा. “जैसी होत होत्वयता, वैसी उपजे बुद्धि” के अनुसार न तो पृथ्वीराज और न ही उनके सामंतों ने इस बात पर गौर किया इस कारण से पुरे भारतवर्ष में कितनी बड़ी विपदा आ जाएगी, और अगर हम महाराज जयचंद्र की पृथ्वीराज से द्वेष भावना को भारत का अर्ध्पतन का एक भाग कहे तो ये गलत नहीं होगा. कुछ दिन के बाद ही प्रीथ्विराज चौहान ने अपने कुछ शूरवीर सामंतों को साथ लेकर दिल्ली पहुँच गए, दिल्ली को पृथ्वीराज के महाराज बनने के अवसर पर दुल्हन की तरह सजाया गया, उनके पहुँचते ही दिल्ली में उत्सव का माहोल बन गया और सम्बंत 1168 मार्गशीर्ष शुक्ल 5 गुरुवार को पृथ्वीराज चौहान दिल्ली के राज सिंघासन में बिठाये गए, दुसरे ही अजमेर और दिल्ली के संयुक्त सेना ने बड़े ही धूमधाम से पृथ्वीराज चौहान की सवारी निकली, चरों ओर “जय जय पृथ्वीराज चौहान” की ध्वनि से सारा माहोल गूँज उठा. सांयकाल के समय दरबार लगा, पृथ्वीराज राजगद्दी में विराजमान हुए, दिल्ली के प्रधान प्रधान अधिकारीयों ने दरबार में आकर जुहार की और अपनी नजरे दी. उसके दुसरे ही दिन महाराज अनंगपाल ने अपनी धर्म पत्नी के साथ बदरिकाश्रम चले गए, और पृथ्वीराज चौहान निति तथा न्यायपुर्वक दिल्ली का राज्य-शाषण करने लगे.
Veer Yodha Prithviraj Chauhan